Zenab rehan

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दूसरा अध्याय




जब मन या दिल विरागी बन गया तो फिर वेदशास्त्र के हजार तरह के वचनों के करते जो बुद्धि की परेशानी थी, बेकली और बेचैनी थी उस पर भी परदा पड़ जाता है, वह भी आप ही आप जाती रहती है - मिट जाती है। जैसे कोई आदमी बड़ी परेशानी में चारों ओर दौड़-धूप करता-कराता तबाह हो, मगर अंदेशे या परेशानी के मिटते ही शांत हो जाएँ और सुख की साँस लें। ठीक वही हालत बुद्धि की हो जाती है। उसकी सारी दौड़-धूप बंद हो जाती है। हमेशा के लिए वह निश्चल एवं निश्चिंत बन जाती है। यही बात दूसरे श्लोक में कही गई है। यह भी बात योग के प्रताप से ही होती है। इसलिए इसे भी योगप्राप्ति की पहचान बताया है।

यहाँ पर अचला और निश्चला ये दो शब्द आए हैं जिनका अर्थ एक ही है। इसीलिए खयाल हो सकता है कि दो में एक बेकार है। मगर बात यह है कि बुद्धि में जो स्थिरता आ गई वह दो तरह की हो सकती है। एक तो तात्कालिक या कुछ समय के ही लिए। दूसरी हमेशा के लिए। कहीं ऐसा न समझ लें कि तात्कालिक शांति और स्थिरता से ही काम चल जाता है। इसीलिए लिखा है कि निश्चल बुद्धि जब अचल हो जाती है। निश्चल को अचल कह देने से ही उसकी शांति एवं स्थिरता में स्थायित्व का अभिप्राय सिद्ध हो जाता है। निश्चल का अक्षरार्थ भी है। चलने से बरी और अचल का अर्थ है जो कभी न चले। बरी तो थोड़े समय के लिए भी रहा जा सकता है।

समाधि शब्द का भी मनमाना अर्थ किया जाता है। अभी तक केवल दो ही बार यह शब्द आया है। एक बार इस श्लोक में। दूसरी बार इससे पूर्व 'समाधौ न विधीयते' (44) में। हमने दोनों जगह एक ही अर्थ अंत:करण या दिमाग किया है। समाधि का अर्थ है जिस दशा में या जहाँ मन स्थिर हो, बुद्धि स्थिर हो, और दिमाग या अंत:करण ही ऐसी चीज है जहाँ से मन या बुद्धि की दौड़ बार-बार हुआ करती है। मगर ज्योंही यह दौड़ रुकी कि वहीं वे दोनों शांत हो जाते हैं। एकाग्रता की दशा में यही होता है। इसीलिए हमने यही अर्थ मुनासिब समझा है। जहाँ के हैं वहीं रुक गए, यही तो शांति, स्थिरता या निश्चलता है और यही निश्चयात्मकता भी है। क्योंकि निश्चय न रहने पर बीस चीजों में उनकी दौड़ जारी ही रहती है।

इतना कह देने से यह तो हो गया कि योगी की पहचान मालूम हो गई। मगर इतने से ही तो काम चलता नहीं दीखता। पहले जब गोलमटोल बात थी तो अर्जुन भी चुप थे। कृष्ण ने भी अपने ही मन से शंका उठा के जवाब दे दिया। मगर कर्मयोगी की पहचान सुनने के बाद स्वभावत: अर्जुन को नई जिज्ञासाएँ पैदा हुईं और उसे पूछना पड़ा। उसे यह सुनते ही एकाएक खयाल आया कि जो कुछ भी पहचान योगी की बताई गई है वह तो भीतरी है, बाहरी नहीं। बुद्धि की स्थिरता या पढ़ने-लिखने से वैराग्य यह तो मनोवृत्ति ही है न? फिर यह बाहर कैसे हो और दूसरों की पहचान में कैसे आए? अपना काम तो शायद इससे चल जाए। क्योंकि हर आदमी अपनी मनोवृत्ति को बखूबी समझ सकता है। मगर बाहर के लोग कैसे जानें कि कौन योगी है? यह नहीं कि दूसरों के जानने की जरूरत ही न हो। यदि दूसरे न जानें तो उन्हें उपदेशक कैसे मिलेगा? क्योंकि जो खुद योगी न हो वह तो उपदेश कर सकता नहीं। फलत: यदि हमें योग का रहस्य जानना है तो योगी के पास ही जाना होगा। मगर बिना पहचाने जाएँगे कैसे? इसीलिए पहचान की जरूरत है, और इसके लिए बाहरी लक्षण, जो उठने-बैठने, बोलने आदि से ही जाना जा सके, मालूम होना चाहिए।

इसके सिवाय जो लक्षण, जो पहचान बताई गई है वह बहुत ही संक्षिप्त है। उसमें एक ही बात है, या ज्यादे से ज्यादे दो बातें हैं। मगर ज्यादा बातें पहचान के रूप में मालूम हो जाएँ तो आसानी हो। इन ज्यादा लक्षणों और बाहरी पहचानों से यह भी लाभ होगा कि जो खुद योगी होगा वह भी अपने आपको समय-समय पर तौलता रहेगा। आखिर योग की पूर्णता एकाएक तो हो जाती नहीं। इसमें तो समय लगता ही है। इस दरम्यान में त्रुटियों एवं कमजोरियों का पता लगा-लगा के उन्हें दूर करना जरूरी हो जाता है। इन्हीं त्रुटियों और कमजोरियों का आसानी से पता लगता है। बाहरी लक्षणों से ही। क्योंकि अपनी कमजोरी अपने आपको जल्द मालूम न होने पर भी दूसरे चटपट जान जाते हैं। फलत: उनकी बातों से सजग हो के योगी खुद अपनी मनोवृत्ति पर कड़ी नजर रखता और उसे ठीक करता है। यही सब खयाल करके -

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।

स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ 54 ॥

अर्जुन ने पूछा - हे केशव, जिसकी बुद्धि स्थिर तथा समाधि में अचल हो गई है - जो योगी बन चुका है - उसकी परिभाषा - लक्षण - क्या है? वह किस तरह बोलता है, कैसे बैठता और कैसे चलता? 54।

यहाँ 'समाधिस्थ' शब्द का वही अर्थ है जो 'योगस्थ: कुरु कर्माणि' में 'योगस्थ' का है। यदि गौर से देखा जाए, और हम पहले विस्तार के साथ लिख भी चुके हैं, तो इस योगी की भी वैसी ही समाधि होती है जैसी पतंजलि के योगी की। यह प्राणायाम भले ही नहीं करे। फिर भी कर्म से बालभर भी इधर-उधर इसकी दृष्टि, इसकी बुद्धि जाने पाती ही नहीं। वहीं जम जाती है, रम जाती है। इसीलिए यह समाधिस्थ और योगस्थ कहा जाता है।

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ 55 ॥

श्रीभगवान ने कहा, हे पार्थ, जब मन के भीतर घुसी सभी कामनाओं को जड़-मूल से खत्म कर देता और आत्मा में ही - अपने आप में ही - अपने से ही - खुद-ब-खुद संतुष्ट रहता है तभी उसे स्थितप्रज्ञ या अचलबुद्धिवाला कहते हैं। 55।

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध : स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ 56 ॥

दु:खों से जिनका मन उद्विग्न न हो सके, सुखों (की प्राप्ति) के लिए जो परेशान न हो और राग, भय एवं द्वेष - क्रोध - ये तीनों ही - जिसके बीत गए या खत्म हो चुके हों वही मननशील - मुनि - स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 56।

इन दो श्लोकों में योगी या स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताया गया है। इस प्रकार अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर हो जाता है। बाद के 57वें में 'किस तरह बोलता है' का और 58वें में 'कैसे बैठता है' का उत्तर दिया गया है। उसके बाद के (59-70) बारह श्लोकों में उसी उत्तर के प्रसंग में आई बातों पर विचार करके 71वें में 'कैसे चलता है' का उत्तर दिया गया है। इस तरह सभी प्रश्नों के उत्तर के रूप में कर्मयोगी का पूर्ण परिचय दे के उसकी वास्तविक दशा का चित्र खींचा गया है। उसी दशा को ब्रह्मनिष्ठा या ब्राह्मीस्थिति भी कहते है, यही बात अंतिम श्लोक में कह के समूचे प्रकरण एवं अध्यामय का भी उपसंहार कर दिया गया है।

यहाँ जो दो श्लोकों में दो लक्षण कहे गए हैं उनमें पहला तो नितांत भीतरी पदार्थ है जिसका पता बाहर से लगना प्राय: असंभव है। किसे पता लग सकता है कि दूसरे आदमी की सभी वासनाएँ खत्म हो गईं? अपने ही भीतर वह मस्त है यह भी जानना क्या संभव है? आसान है? इसीलिए दूसरे श्लोक वाली बातें कही गई हैं। इन बातों के जानने में आसानी जरूर है। तकलीफों में सिर और छाती पीटना, हाय-हाय करना आसानी से जाना जा सकता है। इसी तरह आराम पाने के लिए जो बेचैनी होती है उसका भी पता लगे बिना रहता नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि राग, भय और क्रोध तो छिपनेवाली चीजें हैं नहीं। खासकर भय और उससे भी बढ़ के क्रोध हर्गिज छिप सकता नहीं। इस प्रकार इन लक्षणों से योगी को आसानी से पहचान सकते हैं। सभी तरह के लोग इन लक्षणों से फायदा उठा सकते हैं, यही इनकी खूबी हैं।

य: सर्व त्रा नभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 57 ॥

जो किसी भी पदार्थ में ममता नहीं रखता - चिपका नहीं होता; इसीलिए जो बुरे-भले (पदार्थों) के मिल जाने पर न तो उनका अभिनंदन ही करता है और न उन्हें कोसता ही है, उसी की बुद्धि स्थिर मानी जाती है। 57।

इसके उत्तरार्द्ध में योगी के बोलने की बात अभिनंदन न करने और न कोसने की बात के रूप में साफ ही आई है। योगी के बोलने की यही खास बात है कि वह न तो किसी की स्तुति करता है और न निंदा।

यदा संहरते चायं कूर्मो s गांनीव सर्वश:।

इंद्रियाणोन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 58 ।

जब यह (योगी) अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से एकबारगी ठीक उसी तरह समेट लेता है जैसे (संकट के समय) कछुआ अपने सभी अंगों को, (तब) उसकी बुद्धि स्थिर मानी जाती है। 58।

कछुए के चलने-फिरने से एकाएक रुक जाने और सभी गरदन, पाँव आदि को खींच लेने की बात कहके 'योगी कैसे बैठता है' का उत्तर दिया गया है। वह अपनी सभी इंद्रियों का दरवाजा ही बंद कर देता है। फिर न तो किसी मनोरंजन पदार्थ के लिए कहीं आना होता है और न जाना। यों शरीर-यात्रार्थ नित्य क्रियादि के करने में आने-जाने पर कोई भी रोक नहीं होती। 61वें श्लोक में भी इंद्रियों के ही रोकने की बात दुहराई गई है और कहा गया है कि इंद्रियाँ जिसके वश में हों वही स्थिर बुद्धिवाला है।

इंद्रियों को विषयों से रोक देने की बात सुन के सवाल होता है कि यदि योगी की यही बात है तो हठयोगी तपस्वी को भी क्या कभी गीता का कर्मयोगी कह सकते हैं? वह भी तो आखिर विषयों से किनाराकशी करी लेता है। अपनी इंद्रियों पर वह इतनी सख्ती के साथ लगाम चढ़ाता है कि वे टस से मस होने पाती हैं नहीं। सरदी-गरमी और भूख-प्यास पर उसका कब्जा साफ ही नजर आता है। मगर ऐसे हठी तपस्वियों और योगियों में तो जमीन-आसमान का अंतर है। यह कैसे होगा कि गीता का योगी तपस्वी के साथ मिल जाए - उसी तपस्वी से जिसका वर्णन स्मृतिग्रंथों में पाया जाता है? तब तो यह योगी और योग गीता की अपनी चीज रह जाएगी नहीं। वह एक प्रकार से बहुत ही आसान चीज हो जाएगी। इसीलिए इसका स्पष्टीकरण आगे के बारह श्लोकों में करना जरूरी हो गया। क्योंकि यह विषय जरा गहन है। यह भी बात है कि क्या केवल विषयों के रोकने मात्र की ही जरूरत होती है, या और कुछ भी जरूरी होता है, यह भी जान लेना आवश्यक है। नहीं तो धोखा हो सकता है, होता है।

विषया वि निवर्त्तंते निराहारस्य देहिन:।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्त ते॥ 59 ॥

आहार छोड़ देने वाले मनुष्य के विषय तो (स्वयं) हट जाते हैं। (मगर उनके प्रति) रागद्वेष बने रह जाते हैं। ये भी निवृत्त हो जाते हैं (सही; लेकिन) ब्रह्म-रूपी आत्मा को देखने पर ही, आत्मतत्त्व के ज्ञान के बाद ही। 59।

यहाँ आहार शब्द विचित्र है। सर्वसाधारण में प्रचलित आहार शब्द का अर्थ है भोजन। यह भी माना जाता है कि केवल खाना-पीना - अन्न - छोड़ देने से ही सभी इंद्रियाँ अपने आप शिथिल हो के पस्त और अकर्मण्य हो जाती हैं। फलत: विषयों तक पहुँच नहीं सकती हैं। हालत यहाँ तक हो जाती हैं कि निराहार या अनशन करनेवाले के कान में हारमोनियम बजाइए तो भी उसे कुछ पता ही नहीं चलता है। नासिका के पास इतर-गुलाब लाइए तो भी उसे गंध का पता नहीं चलता। इसीलिए छांदोग्योपनिषद् के सातवें प्रपाठक - अध्याकय - के नवें खंड में लिखा भी है कि यदि दस दिन भोजन न करे तो उसके प्राण भले ही न जाएँ, फिर भी सुनना, सोचना, विचारना वगैरह तो खत्म ही हो जाता है - 'यद्यपि दशरात्रीर्नाश्नीयाद्यद्युहजीवेदथवाऽद्रष्टाऽश्रोताऽमन्ताऽ- बोद्धाऽकर्त्ताऽविज्ञाता भवति' (9। 1)

दूसरी ओर यह मानने वाले भी बहुत से लोग हैं कि आहार का अर्थ केवल अन्न न हो के इंद्रियों के पदार्थ या विषय को ही आहार कहना उचित है। आहार शब्द का अर्थ भी यही होता है कि जो अपनी ओर खींचे। विषय तो खामख्वाह इंद्रियों को खींचते ही हैं। पहले श्लोक में सिर्फ भोजन की बात न आ के विषयों की ही बात आई है। बादवाले श्लोक में भी इंद्रियों के विषयों की ओर ही खिंच जाने और मन को खींच ले जाने की बात कही गई है। छांदोग्योपनिषद् के सातवें प्रपाठक के अंत में यह भी लिखा गया है कि आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि और सत्त्व की शुद्धि से पक्की एवं चिरस्थाई स्मृति, जिसे स्मरण या तत्त्वज्ञान कहते हैं, होती है, जिससे सारे बंधन कट के मुक्ति होती है - 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष:' (7। 26। 2)। यदि इस वचन से पहले वाले इसी 26वें खंड के ही वाक्य पढ़े जाए या सारा प्रकरण देखा जाए तो साफ पता चलता है कि यहाँ आहार शब्द का अर्थ इंद्रियों के विषय ही उचित हैं, न कि भोजन। यही ठीक भी है। केवल भोजन तो ठीक हो और बाकी काम ठीक न रहें तो सत्त्वगुण या उस गुण वाले अंत:करण की शुद्धि कैसे होगी और उसकी मैल कैसे दूर होगी? तब तो खामख्वाह रज और तम का धावा होता ही रहेगा। फलत: वे सत्त्व या सत्त्व-प्रधान अंत:करण को रह-रह के दबाते ही रहेंगे। इसीलिए चौदहवें अध्याफय के अंत में गीता में भी गुणों से पिंड छूटने के लिए ऐसी चीजें बताई गई हैं जो भोजन से निराली और विभिन्न विषय रूप ही हैं।

यह ठीक है कि जब अनशन करने वाले लोग कहें कि इंद्रियों को वश में करने के लिए आत्मतत्त्व विवेक की जरूरत है नहीं; केवल निराहार होने से ही काम चल जाएगा, तो उनके उत्तर में इस श्लोक में यह कहने का सुंदर मौका है कि हाँ, इंद्रियाँ तो रुक जाती हैं जरूर। मगर रस या चसका तो बना ही रहता है, जिसे राग और द्वेष के नाम से पुकारते हैं इसीलिए तत्त्वज्ञान की जरूरत है। क्योंकि वह रस तो उसी से खत्म होता है। इस प्रकार श्लोक की संगति भी बैठ जाती है। मगर यह संगति तो विषयों की बात मान लेने पर भी बैठ जाती ही है। क्योंकि हठी तपस्वी लोग एकदम निराहार तो नहीं हो जाते। शरीररक्षार्थ कुछ तो खाते-पीते हईं। हाँ, काम-चलाऊ मात्र ही स्वीकार करते और शीत-उष्ण की सख्ती के साथ सह के इंद्रियों को बलपूर्वक रोक रखते हैं। आखिर उनका भी तो जवाब चाहिए। ऐसे ही लोग ज्यादा होते हैं भी। इसीलिए गीता ने उनका और दूसरों का भी उत्तर इसी श्लोक में दिया है। राग और द्वेष को ही यहाँ रस कहा गया है। इन्हीं का दूसरा नाम काम एवं क्रोध और भय तथा प्रीति भी है। इसे गीता ने खासतौर से संग कहा है।

इसी के लिए आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान जरूरी माना गया है। वही योग का मूलाधार है। उसी के लिए सबसे पहले महान यत्न करना जरूरी है। मगर कुछ लोग ऐसा गुमान कर सकते हैं कि आत्मज्ञान जैसी दुर्लभ चीज के लिए परेशान होने और मरने की क्या जरूरत है? इंद्रियों के रोकने का ही ज्यादे से ज्यादा यत्न और अभ्यास करके यह काम हो सकता है कि वे आगे चल के कभी भी विषयों की ओर न ताकें। आखिर राग-द्वेष लाठी से तो मारते नहीं। होता है यही कि उनके रहते इंद्रियों के लिए खतरा बना रहता है कि कभी विषयों में जा फँसेंगी। यही बात न होने का उपाय अभ्यास है। अभ्यास करते-करते ऐसी आदत पड़ जाएगी कि अंत में विषय भूल जाएँगे। मगर ऐसे गुमानवाले न तो इंद्रियों की ही ताकत जानते हैं और न राग-द्वेष की मोहनी और महिमा ही। यह राग-द्वेष ही ऐसी रस्सी है जो विषयों को इंद्रियों से और इंद्रियों को मन से जोड़ती है। जब तक यह रस्सी जल न जाए कोई उपाय नहीं। तब तक इंद्रियाँ खुद तो विषयों में जाएँगी ही। मन को भी घसीट लेंगी। यही बात आगे यों कहते हैं -

यततो ह्यपि कौंतेय पुरुषस्य विपश्चित:।

इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ 60 ॥

हे कौंतेय, पूरा समझदार पुरुष के (हजार) यत्न करते रहने पर भी (ये) बेचैन कर देने वाली इंद्रियाँ मन को (अपनी ओर) बलात खींच लेती हैं। 60।

इस श्लोक में 'पुरुषस्य विपश्चित:' कहने का प्रयोजन यही है कि ऐरे-गैरे की तो बात ही मत पूछिए। विवेकी और मुस्तैद - मर्दाने - लोगों की भी दुर्गति ये बदजात इंद्रियाँ कर डालती हैं। इसी तरह 'हरन्ति' शब्द का आशय यह है कि हमें पता नहीं लगने पाता और चुपके से मन उधर खिंच जाता है। हम हजार चाहें कि ऐसा न हो। मगर इंद्रियाँ तो ललकार के ऐसा करती हैं और हमें पता तब चलता है जब एकाएक देखते हैं कि मनीराम गायब हैं!


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